जब कुछ नहीं रहा, तब मैं रह गया।
(लघु लेख ~ आनंद किशोर मेहता)
जीवन की यात्रा में एक समय ऐसा आता है जब सब कुछ हाथ से फिसलता-सा लगता है — अपने कहे जाने वाले रिश्ते, समाज में बनी पहचान, वर्षों से संजोए सपने, और आत्मसंतोष की झूठी धारणाएँ। उस क्षण भीतर एक शून्य-सा भर जाता है, और हम पूछ बैठते हैं: "अब क्या बचा?"
परंतु इसी शून्य के भीतर एक मौन उत्तर उभरता है —
"तू बचा है… तू अब भी है।"
मैंने देखा — जो कुछ गया, वह मेरा नहीं था।
जो मेरा था, वह कभी गया ही नहीं।
वो तो भीतर ही था — शांत, सरल, और अपरिवर्तनीय।
बंधनों के छूटने की पीड़ा, धीरे-धीरे एक वरदान बन गई।
अब मैं किसी परिभाषा में नहीं समाता।
ना किसी की स्वीकृति की आवश्यकता है,
ना किसी भूमिका को निभाने की मजबूरी।
मैं हूँ —
बस यही मेरी सबसे गहरी पहचान है।
अब कोई दौड़ नहीं, कोई साबित करने की होड़ नहीं।
अब जो जीवन है, वह दिखावे का नहीं,
बल्कि एक आंतरिक सत्यान्वेषण का जीवन है।
जो गया, उसने रास्ता साफ किया —
और जो शेष है,
वो मैं हूँ… सच्चा, निर्विकार, और मुक्त।
अब मुझे कुछ नहीं चाहिए —
सिवाय इस आत्मिक मौन में जीने के,
जहाँ कोई प्रश्न नहीं बचा,
सिर्फ उत्तर है —
"मैं हूँ।"
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
बंधनों से परे—मैं हूँ।
मैं वही हूँ जो हमेशा था, पर अब बिना किसी परिचय के, बिना किसी नाम के—मुक्त और सहज।
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